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Wednesday, 12 September 2012

Ajnabi

एक अजनबीपनसा है भीतर कहीं,
जो तलाशता है खुद में खुद को,
इस वजूद में एक वजूद मजूद है कहीं,
जो जन्म देता हैं अनजाने ही अनचाही बातों को,
जो कभी रूप लेता हैं इंसानी भावुकता का,
तो कभी शक्ल इख्तियार करता हैं कठोरता की,
कभी स्थिर हो मुक्त जो जाता है अचानक,
कभी अस्थिर हो हलचल मचाता हैं अन्दर कहीं!
व्याकुल हो कभी घंटो भटकता हैं ,
और कभी यूँ शांत जैसे नदी बिना हलचल की!
कभी स्वार्थी हो मैं बन जाता हैं,
कभी समर्पित हो जाता हैं इंसानियत के प्रति!
रुकता है कभी दुसरो क थके कदमो को सहारा देने के लिए,
और कभी दौड़ जाता हैं सबसे आगे होने के लिए!
बड़े बड़े दुखो को करके आत्मसात,
छोटे छोटे दुखो में बिखर जाता हैं!
पता नहीं ये कौन अजनबी समाया हैं,
मेरी शक्सियत में भीतर कहीं,
या शायद सबमे समाया होता हैं ये,
और कोई इसे पहचान पाता नहीं ,
ये भीतर बैठ सब करवाता है हमसे,
और हमारा वाह्य वजूद इसे रोक पाता नहीं!!

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