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Monday, 3 September 2012

पेश करूँ भी तो क्या....?

एक अदद टुकड़ा चाँद ले आऊं....और ले आऊँ कुछ दर्जन सोने की मोहरें...

या लाऊं शहद भरा एक दिल, जिसके आँगन में सदा गुलाब रहें बिखरे...


मुट्ठी भर तारे लाऊँ, उसके साथ सजाऊं ढलती शाम की चंचल अंगडाई...

या लाऊं पावस का निर्मल जल, साथ बुलाऊं मद्धम सी बहती पुरवाई..


सूरज की मासूम किरणों की तपिश आने दूं या होने दूं वादियों सी ठंडक..

गीत सुनाऊं लहरों की कलकल के या सुनवाऊँ कोयल का मधुर कलरव...


मेरी पलकों से सजा के शामियाना, पहना दूं उसे मेरी बेसब्र बाहों के हार...

फिर पेश करूँ मेरा हाथ, मेरे जज़्बात, मेरा दिल, मेरी जान और मेरा प्यार...


अ कायनात, मेरा साथ दे कुछ, शमां वो बना, जिससे खुश हो जाये मेरा खुदा....

जिसका है मेरा "सब कुछ" पहले से , उसको तोहफे में अब पेश करूँ भी तो क्या....?

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