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Saturday, 14 July 2012

Tarif


" तारीफ़ "
आँखों में सपने सजा के खो ख सी बैठी है
बदल में चिपटी चांदनी मनो धरती पर आकर लेके बैठी है
अनार के अनो के जैसे ,मुह छुपाये के बैठी ह
इतनी मासूम लगती है जैसे कली शर्माए बैठी है
गुलाब की पत्ती को माना होठो से लगाये बैठी है
मंद - मंद बहती हवा ओ कोई खुशबू बीखरे बैठी है
समंदर की लहरों से उछाले वो तन पे सजाये बैठी है
सूरज की ब्रह्न्ति तेज बिखेरे फलक सजाये बैठी है
जूई की तरह वो अपनी जुल्फ लह्राये बैठी है
संगे मरमर की ये मूरत मेरे दिल में समाये बैठी है

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