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Friday 24 August 2012

अस्‍ति‍त्‍व

अस्‍ति‍त्‍व बोध .

मैं मानव हूँ
मैं मानव नहीं हूँ
इसी उधेड़बुन में
मैं वर्षों से लगा हूँ
टटोलता हूँ
अपने आपको
पलट चुका हूँ
वे सैकड़ों पन्‍ने
ग्रंथों के, क़ुरान के, गीता के
जो मानव को
देवता कहने का
दम भरते हैं
पलट चुका हूँ
वे पन्‍ने
जो मानव सभ्‍यता की
उत्‍कर्ष की गाथा कहते
पलट चुका हूँ
इति‍हास के वे पन्‍ने
जि‍नकी समरगाथा की स्‍याही
ख़ूनी नज़र आती
मन शान्‍त नहीं
अंधेरे में कोई जुगनू भी नहीं
टि‍मटि‍मता है
हर घड़ी, हर लम्‍हा
एक इति‍हास रचता है
बर्बरता का
इस इति‍हास के पन्‍नों की स्‍याही
रक्‍ति‍म स्‍याही अब
अपनी पंक्‍ति‍यों से
बाहर बहने लगी है
कभी कभी
उतार देता हूँ सारे कपड़े
और
देखने लगता हूँ
जानवरों वाली
भतीजे की क़ि‍ताब
कोशि‍श करता हूँ
समझने की
कि‍ अंतर कैसा है ?
उनमें और मुझमें।

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