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Saturday, 18 August 2012

मैं भी मज़बूर हो रही हूँ

मैने ये तो नही चाहा कि
रात को थक के जब कमरे में
कदम रखूं
मेरे पैर दबाओ
बस यही चाहा था मेरे पास आओ
इतना ही कह दो थक गयी हो ना?
ऐसा कभी पूछ लेते तो यही कहती
नही तो
और तुमहरी बाहों में खो जाती
सब थकान भूल के सो जाती

पर किस्मत में तुम्हारा दूर भागना लिखा है
मेरा रात रात भर जागना लिखा है
तो सो नही पाती
आँख भी ऐसी थक जाती है की
रो नही पाती

फिर सुबह होती है
अगले दिन की ज़िम्मेदारी जगाती है
रो नही पाती आँखें तो
हँसी आती है

फिर से निकल जाती हूँ कमरे से बाहर
और पीछे मूड के देखती हूँ
जिस के साथ रात सोई रही?
क्या वो मुझे जनता है?
या मैं जानती हूँ?
उस को छोड़ो
इस घर में बरसों पहले आई थी जो
उस को पहचानती हूँ?

जवाब नही मिलता और मैं चल देती हूँ
कुछ और सोचने लगती हूँ
सोच को बदल देती हूँ
बस चल देती हूँ
इसी तरह चल चल के तुम से दूर हो रही हूँ
सच अब मैं भी मज़बूर हो रही हूँ

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